मेरा गाँव अनोखा-सा
छोटा-सा, प्यारा-सा ।
नाम उसका पिपरा विशों
लगता मुझे सबसे न्यारा-सा ।
बीस-बीस पीपल के पेड़
जिस पर लताएं अनेक।
पशु-पंछी बहुतेरे
डाले रहते सब डेरे ।
पगडंडियों पर फैली धूल,
खेतो में खिले सरसो के फूल ।
प्राकृतिक छटाएं लेती अंगड़ाई
सुंदरता मानो अंग-अंग में समाई ।
जात-पात में रचे-बसे सब लोग
परम्पराओं से चिपके रहते सदैव।
फिर भी रखते सद्भाव
सुख-दुख में साथ रह्ते सदैव।
नाचते पपीहे कोयल और मोर
कल-कल बहती सरिता का शोर ।
हरियाली से सजा हुआ हर ठौर
खेती-बाड़ी पर रहता ज़ोर ।
पढ़ने-लिखने से बड़े दूर
कदम-कदम पर परंपरा और दस्तूर ।
गाँव में लगती चौपाल
मुखियाजी की बड़ी सूझ-बूझ ।
होली के सुनहरे रंग
संक्रांति की रंगीन पतंग ।
हृदय सागर में उठती तरंग
दोस्तों के संग बड़ी उमंग ।
मेल-जोल का पावन छठ त्योहार
अर्घ में बसता माँ का प्यार ।
दीवाली में सब दीप जलाते
मन की कालिख दूर भगाते ।
वक्त ने बदला सारा संसार
बदला रहन-सहन, बदल गया व्यवहार ।
आ गया गावों में लोकतंत्र
बदले रीति रिवाज और त्योहार ।
आजादी के बीत गए साठ वर्ष
नदारत रहा गाँवों का विकास ।
उलझते आकडों का खेल
चलती हमेंशा राजनीति की रेल।
बच्चे करते रहते इंतजार
शिक्षक करते शिक्षा का व्यापार ।
राशन डीलर हो रहे मालामाल
स्वास्थ्य का हाल है बेहाल ।
लोक लुभावन नारों को
हकीकत से करना होगा साक्षात्कार ।
तभी पिपरा विशों जैसे गावों में
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