27.6.13

मेरा गाँव

मेरा गाँव अनोखा-सा
छोटा-सा, प्यारा-सा ।
नाम उसका पिपरा विशों
लगता मुझे सबसे न्यारा-सा ।

बीस-बीस पीपल के पेड़
जिस पर लताएं अनेक।
पशु-पंछी बहुतेरे
डाले रहते सब डेरे ।



पगडंडियों पर फैली धूल,
खेतो में खिले सरसो के फूल ।
प्राकृतिक छटाएं लेती अंगड़ाई
सुंदरता मानो अंग-अंग में समाई ।

जात-पात में रचे-बसे सब लोग
परम्पराओं से चिपके रहते सदैव।
फिर भी रखते सद्भाव
सुख-दुख में साथ रह्ते सदैव।

नाचते पपीहे कोयल और मोर
कल-कल बहती सरिता का शोर ।
हरियाली से सजा हुआ हर ठौर
खेती-बाड़ी पर रहता ज़ोर ।

पढ़ने-लिखने से बड़े दूर
कदम-कदम पर परंपरा और दस्तूर ।
गाँव में लगती चौपाल
मुखियाजी की बड़ी सूझ-बूझ ।

होली के सुनहरे रंग
संक्रांति की रंगीन पतंग ।
हृदय सागर में उठती तरंग
दोस्तों के संग बड़ी उमंग ।

मेल-जोल का पावन छठ त्योहार
अर्घ में बसता माँ का प्यार ।
दीवाली में सब दीप जलाते  
मन की कालिख दूर भगाते ।

वक्त ने बदला सारा संसार
बदला रहन-सहन, बदल गया व्यवहार ।  
आ गया गावों में लोकतंत्र
बदले रीति रिवाज और त्योहार ।

आजादी के बीत गए साठ वर्ष
नदारत रहा गाँवों का विकास ।
उलझते आकडों का खेल
चलती हमेंशा राजनीति की रेल।

बच्चे करते रहते इंतजार
शिक्षक करते शिक्षा का व्यापार ।
राशन डीलर हो रहे मालामाल
स्वास्थ्य का हाल है बेहाल ।

लोक लुभावन नारों को
हकीकत से करना होगा साक्षात्कार ।
तभी पिपरा विशों जैसे गावों में
विकास बनेगा लोकतंत्र का आधार।

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